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Friday, August 6, 2010

ट्रेन का सफर.....






कल बीती रात मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था.रात भर सो नही पाया.कोशिश बहुत की मगर कमबख्त नींद न जाने कहा खो गयी थी.इसका कारण या तो मैं खुद था या वो फिल्मी गुट.


दरअसल मेरी अगली ओर ही एक फ़िल्मी गुट बैठा था.फ़िल्मी इसलिए कह रहा हूँ क्योकि दोपहर के 2 बजे से,मतलब सफ़र शुरू होने से करीब रात के 2 बजे तक यानि 12 घंटे के करीब बस उनका एक ही मुद्दा था और वो था रोज़ के आने वाले डेली सोप्स पर बहस......

कभी कहीं कोई "लाडो" को बुरा कह जाता तो कहीं उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते.कहीं "आनंदी" को बुरा बता दिया जाता तो कही "आनंदी" की तरफदारी करने कुछ औरतो का अलग ही रविया दिखता.


ये सिलसिला यहीं नही थमा, क्योकि अभी तो बस चिंगारी भड़की थी,पूरी आग तो लगना अभी बाकी थी.मेरे सोचे मुताबिक वही हुआ जिसका डर था.आखिर आग लग ही गयी. खाते समय, पीते समय, सोने से पहले बस समझ लीजिये हर समय इन सभी बातों का ज़िक्र होता रहा.

कोई सुध नही दिखाई पड़ रही थी कि कोई तो मुद्दा बदल के एक दूसरे के हाल चाल पूछ ले.ज़ाहिर है इतने समय बाद मिले थे ये सभी लोग आपस में, एक बार तो हाल चाल पूछना बनता ही था. ख़ैर छोडिये इनके भी क्या कहने!


चलिए अब बात चल ही पड़ी है तो आपको थोडा गहराई में उतार दियेता हूँ.
आप भी सोच रहे होंगे कि कोई भला कितनी बातें कर सकता है इस मुद्दे पर? लेकिन जनाब ये मुद्दा सिर्फ यही नहीं था कि कौन बुरा और कौन अच्छा? 


यहाँ तो हर एक उस बात पर मुद्दा गरम होते नज़र आ रहा था जिसके बारे में शायद ही कोई इतनी गहनता से सोचता हो. उसकी साडी, उसकी बिंदिया, उसका लहेंगा.यहाँ तक की उसकी चाल,उसके बाल,उसका मेक-अप.....क्या नही छोड़ा? 

मेरी मानिए जनाब इतना गौर तो न "आनंदी" खुद करती होगी न ही "लाडो".आप भी कहेंगे कि ये मोहक भी पागल हो गया है, कोई स्टोरी नही मिली तो कुछ भी लेकर आ गया है.लेकिन क्या करूँ मेरी भी मजबूरी है, पत्रकार हूँ ना,किसी भी बात को एक मुद्दा बना ही देता हूँ.


लेकिन कल रात के सफ़र से एक बात तो समझ में आ ही गयी, कि'क्यों भारतीयों को ही इडियट बॉक्स का सबसे बड़ा सनकी, पागल, दीवाना कहते है......'


समय देखा,रात के बज चुके थे.चलिए अब मैं थोडा खुश था.धीरे-धीरे आग बुझने लगी थी तो मैंने भी सोचा की थोडा विश्राम कर लिया जाए लेकिन किस्मत कुछ और ही चाह रही थी.ये तो पता नही की ये मात्र एक इतेफाक था या मेरी ख़राब किस्मत जो एक आग के बुझते ही दूसरी सुलगने के लिए तैयार थी....

चलिए अब नींद तो आने से रही थी.मन ही मन सोचा कि अब तक एक गुट से इतना कुछ सुन लिया हूँ,थोडा इस गुट की भी सुन ही लियेता हूँ.आइये तो अब मैं आपको लिए चलता हूं दूसरे छोर पर.


ये एक ऐसा गुट है जिसको कोई मतलब नही है सीरियल की दुनिया से.
बेवकूफ समझते है ये लोग उनको जो ये सब देखते है........

इनका तो बस एक ही मुद्दा है और मेरा अनुमान है कि इनका ये मुद्दा जायज़ भी है.बिलकुल सही मुद्दे पर बात हो रही है इनके बीच.इनको तो दाद देता हूँ मैं.


आप सुनेंगे तो शायद आप भी दाद दिए बिना नही रह सकेंगे,क्योकि अगर हर भारतीय भी इनकी तरह ही गर्मजोशी से इस मुद्दे पर बात करना शुरू कर दे तो यकीन मानिये मात्र 10 दिनों में 30% बदलाव तो हो ही जायेगा.


बाकी बचे बदलाव के प्रतिशत को शायद एक महीना और लग जाए.कहने का मतलब ये कि एक या दो महीने में भारत की तस्वीर ही बदल जाएगी,जो आज 50 साल से भी ज्यादा समय लेने के बाद भी नही बदल पायी है.


चलिए बहुत हो गया मेरा ये पहेली बुझाना,अब मैं अपनी बात पर आता हूँ.तो सरकार 


इनका मुद्दा था महंगाई........


इनका मुद्दा था आम आदमी.इनका मुद्दा था आम आदमी  पर पड़ रहे महंगाई के डंडे को 
रोकने का ,कि किस तरह से रोका जाए ये "भ्रष्ट डंडा"?वैसे ये मुद्दा कोई नया नहीं है.बहुत 
लोग बहुत बार इस मुद्दे पर बात करते नज़र आये है,चाहे वो सरकारी ऑफिस में हो या 
गाँव में,या आपके और हमारे ही घर ही हो.अंजाम कुछ नही होता,बस यही होता है जो हर 
बार होता आया है और शायद आगे भी यही होता रहेगा,और वो है "कुछ नहीं"




करीब तडके सुबह के 4.30 बजे तक चले इस मुद्दे की बहस में मैं एक ही निष्कर्ष तक पहुँच 
पाया.वो ये कि इनमे से कुछ लोग तो दाल,चीनी,नमक,सब्जी-फल या पेट्रोल,डीज़ल के गान गा रहे थे,संक्षिप्त में कहना का मतलब कि महँगाई के दामों से रु ब रु करा रहे थे कि किसका दाम बढ़ा और किसका घटा?


("हा हा माफ कीजियेगा जनाब लेकिन कुछ नही घटा,सब बढ़ा ही बढ़ा है......")





तो वहीँ कुछ लोग वैसे ही हर बार कि तरह सरकार को कोस रहे थे
,कुछ सिस्टम को दोष दे रहे थे,तो कुछ अपनी ही दादागिरी पर उतर आये थे.इन दादागिरी करने वालों का बस एक यही कहना था कि "अगर मुझे मंत्री बना दें तो मैं देखता हूँ फिर",तो वहीँ दूसरा बोलता कि "मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो अब तक हमारे देश को अमेरिका से भी आगे ला खड़ा किया होता...."




यही था मेरा निष्कर्ष,कि जो बादल गरजते है वो बरसते नहीं,समझ गया था मैं कि इन तिलों में तेल नहीं.
सिर्फ टाइम पास कर रहे थे ये लोग,सफर जो पूरा करना था इन्हे....




यही कमी है हमारे लोगों में,बस बोलना जानते है पर कुछ करना नही.
शायद ये कुछ करना चाहते ही नही है.मुझे तो वास्तव में यही लगता है कि सिर्फ यही लोग है जिनके वजह से आज भारत की ये दशा हुई है




बस फिर क्या था इनके मुद्दे पर मैंने भी मन ही मन अपने भी कुछ तर्क रख डाले.अपनी बात रखते रखते 6 बज चुके थे.सोचा थोड़ी कमर सीधी कर लूँ,लेकिन एका-एक ध्यान आया कि मेरी मंजिल तो कुछ ही क्षणों में आने को है.मजबूरी थी,उठना पड़ा.सामान संभाला और इंतज़ार करने लगा अपने स्टेशन के आने का.




ट्रेन के गेट पर खड़ा अपना सामान लादे सूर्यदेव को नमस्कार कर सूर्यदेव से ही पूछने लगा कि "क्या इसी तरह ही सोती रहेगी हमारी ये भोली जनता? क्या ऐसा ही रहेगा हमारा ये देश जैसा आज है?या ये नयी पीड़ी कुछ बदलाव ला पायेगी?"




गौर से देखा तो सूर्यदेव भी अपने लालिमा युक्त चहरे से देख मुझे मुस्कुरा रहे थे.मैं समझ गया.




मुझे मुहतोड़ जवाब मिल चुका था और मेरा स्टेशन भी आ चुका था...........





दिल से धन्यवाद.......



                                                                                                                                                                                                     मोहक शर्मा........

12 comments:

Unknown said...

nice work dude keep rocking its gud

मोहक शर्मा said...

धन्यवाद शाकिर मियाँ....बस यूँ ही ठाले बैठे बैठे कभी दिल की बात कागज पर उतार देता हूँ...अब तो इन्टरनेट का ज़माना है तो ब्लॉग एक अच्छा जरिया है अपनी भावनाये पेश करने का....

Anoop Aakash Verma said...

एक दिलचस्प यात्रा की बेहतरीन प्रस्तुति..ये आज का फिल्मों से ज्यादा चर्चा वाला विषय है...........ढेरों शुभकामनायें...

Anonymous said...

kya bt h bhai very nice

Anonymous said...

behut khub
yaar gud writing work

DJS ART said...

gud job

Prashant said...

"क्या इसी तरह ही सोती रहेगी हमारी ये भोली जनता? क्या ऐसा ही रहेगा हमारा ये देश जैसा आज है?या ये नयी पीड़ी कुछ बदलाव ला पायेगी?"

ये पंक्तियाँ , इस पूरे चिंतन का सार प्रस्तुत करती हैं, बदलाव का आवाहन और नेतृत्व दोनों ही नयी पीढ़ी के ऊपर निर्भर है.. आपका चिंतन बहुत ही सार्थक है .. साधुवाद .

Unknown said...

I personally feel that you your are really interested to understand the pulse of the society, always travel in a cleeper class train. I know it is often inconvenient, but then the profession of journalism never promises a bed of roses.

Neerzari said...

Good one....

Hitesh Tulaskar said...

really............aap sahi hain.par iss mahangai ko rokane ke liye hame Bhrastachar ko bhi rokana padega.aur dhanyawad aapka ki aap hum sab ko iss mudde par jagrukh kar rahe hain. warna kisi ka dhyan iss baat par rahta hi nahi. Dhanyawaad

pawan kesharwani said...

pasand aya aapka ....

pawan kesharwani said...

ok