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Sunday, August 8, 2010

मेरे मन का पंछी..........

यूं ही खाली बैठे बैठे बस मन में आ रहा है कुछ....सोचने से पहले भी सोच रहा हूँ कि क्या सोचा जाए?किस मुद्दे पर सोचा जाए...?

वैसे जब कोई मुद्दा मिल जाता है तो बस चल पड़ती है मेरी गाडी "दुरंतो" और अक्सर ये एक लम्बा सफ़र तय करती है हर बार.बिना रुके,बिना थके......

लेकिन क्या फायदा? जब कोई यात्री ही ना बैठा हो उसमे तो गाडी चलने का क्या काम? एका-एक मेरी सोचने की "दुरंतो" बंद हो जाती है और मन कहता है कि रुक थोडा आराम कर ले...मैं मन से कहता हूँ कि "नही!आराम नही करना मुझे....."


मुझे तो भागना है चलने की तो छोड़ो...बस भागना है...इस दौड़ में ऐसा दौड़ना है कि सबसे आगे निकल जाऊ.इतना आगे कि दूर दूर तक कोई न हो मुझसे मुकाबला करने वाला.
मेरा मन विचलित होने लगा है...इसे शायद उड़ना है...पर कहाँ की ओर उड़ना चाहता है ये मन का पंछी मेरा,ये खुद नही जानता..??बस रट लगाये बैठा है कि मुझे उड़ने दो.....
बेचैनी सी महसूस करने लगा हूँ मैं....वैसे ये कोई नयी बात नही है..पहली बार मेरी ऐसी हालत नही हुई है..

हा हा...ये तो अक्सर होता है मेरे साथ,जैसा अभी हो रहा है...
कुछ भी सोचने लगता है ये मेरे मन का पंछी.....कुछ विचार है मेरे मन में जो इस समय बहार आने को व्याकुल है....क्यों मचल रहा है ये? क्यों परेशान है? क्या चाहता है? शायद बाहर जाना है इसे....
नहीं नहीं! अगर पूछ लिया इससे,तो बाहर जाने कि रट लगा देगा.लेकिन इतनी समझ तो इसको भी है कि बाहर तो इंद्रदेव आये खड़े है,बारिश हो रही है बाहर तो?
गुलाम अली साहब....
तो क्यों है ये बेचैन?

चलिए इसकी भी सुन लियेता हूँ.....
हा हा ये कह रहा है कि "चमकते चाँद को टुटा हुआ तारा बना डाला,मेरी आवारगी ने मुझे को आवारा बना डाला,मुझे तकदीर ने तकदीर का मारा बना डाला......
मुझे इस शहर ने गलियों का बंजारा बना डाला.....
यही आगाज़ था मेरा और यही अंजाम होना था........
मुझे बर्बाद होना था,नाकाम होना था......

नाराज है शायद, दुखी है शायद......

वैसे मुझे गुलाम अली साहब का बहुत बड़ा फैन लगता है ये मन...ठाले बैठे नही कि शरू हो जाता है बस....


गुलाम अली साहब.....

"अपनी धुन में रहता हूँ,मैं भी तेरे जैसा हूँ.....ओ पिछली रुत के साथी,अब के बरस मैं तन्हा हूँ.....तेरी गली में सारा दिन,दुःख के कंकर चुनता हूँ....."


चंचल है शायद, थोडा बच्चा है शायद......
दरअसल वास्तव में पसंद है मुझे मेरे मन की ये आदत....
क्या गलत करता है ये ? कुछ नही शायद,ये तो वो सुनता है जो सुनना चाहता है....
ये वो सुनता है जिसे हर वो शख्स पसंद करता है जो खुद अपने मन में एक कवि को जिंदा रखे हुए है....

मोहोमद रफ़ी जी.....
आज की युवा पीड़ी को बहुत कोसता है ये मन...बार बार पूछता है मुझसे कि कहाँ चले गये किशोर दा, मोहोमद्द रफ़ी जी,नसरत फतह अली साहब और ना जाने कौन कौन?
कहता है कि आज अगर जिंदा होते,तो नहीं होते ये बेहुदा और कानो को चुभने वाले कर्किश गीत....
चिल्ला चिल्ला के पूछ रहा है ये इन युवाओ से कि क्या है ये " पपा जग जायेगा" क्या है ये "जब तक रहेगा समोसे में आलू" क्या है ये "मेरे ख्याब भी कमीने"??????

आज गानों में गालिये भर देने का तो फैशन सा चल पड़ा है....कुछ भी बना देते है ये संगीतकार...ज़रा आज से कुछ समय पीछे चले जाइये और याद कीजये उन गीतों को "नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठी में क्या है", "मेरे देश की धरती सोना उगले,उगले हीरे मोती", "जैसी करनी वैसी भरनी"........
किशोर दा....
जनाब एक गीत भी ऐसा नहीं मिलेगा जिसका कोई अर्थ ना हो, क्या खूबसूरत गीत हुआ करते थे...हर गीत की एक एक पंक्ति में शिक्षा होती थी....सदाबहार गीत है ये तो........

इस ज़माने के और उस ज़माने के ये तो सिर्फ तीन-तीन गीत गिनवाए है आपको, कभी समय निकालिएगा और अपने भी मन से पूछियेगा,तो एक नही लाखों ऐसे गीत आ जायेंगे आपकी जुबां पे,जिनका कोई वजूद नही है,ना सिर है ना पैर और दूसरी तरफ शिक्षा भरे, मीनिंगफुल गीत.....आप खुद ही फैसला करें.... 

आज तो ये उटपटांग गीत ही बस बज रहे है.....और बजते ही जा रहे है....

बजने के नाम से याद आया कि क्या बज गया है? रुकिए समय देख लू...
हाहा इस "दुरंतो" के चक्कर में कब रात्रि के तीन बज गये पता ही ना चला,चलिए दो ज़मानों के तीन गीत याद दिला के, तीन गायकों के नाम गिना के, रात के तीन बजे मैं भी चल दियेता हूँ..कल फिर मुलाकात करूँगा अपने मन के पंछी से...........


दिल से धन्यवाद............                                                                                                                                                                                                                                                              




मोहक शर्मा...........

1 comment:

Anonymous said...

gud