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Sunday, August 29, 2010

इमोशनल अत्याचार या सेक्स अत्याचार.......




पिछले कई दिनों से बहुत लोगों से एक कार्यक्रम के बारे में सुन रहा हूँ मैं....कुछ दिनों पहले उसी कार्यक्रम को देखने का अवसर भी प्राप्त हुआ मुझे....इसे देखने के बाद एक अजीब सी विडम्बना थी मेंरे अंदर.


मोटे अक्षरों में,मैं सोचा रहा था कि क्या है ये बकवास,जहाँ कुछ भी होता हुआ नज़र आ रहा है,लड़का लड़की में कहीं कोई मान मर्यादा ही नही रही है,जहा सिर्फ और सिर्फ अश्लील हरकतें दिख रही है


वैसे आज कल जिसे देखो बिंदास टी.वी पर प्रसारित कार्यक्रम इमोशनल अत्याचार का दीवाना बना हुआ है विशेषकर युवा वर्गजो कि खुद ही इस कार्यक्रम का केंद्र भी हैं. क्या यह कार्यक्रम सच में किसी पर हुए इमोशनल अत्याचार को दिखाता है किसी भी दृष्टि कोण से देखकर ऐसा तो नजर बिल्कुल नही आताइसे देख कर तो यही लगता है कि यह केवल सेक्स की बात ही दर्शको को दिखाता है. हर एपिसोड में एक लड़का और और लड़की केवल किस करते या सेक्स की बातें ही करते नजर आते हैं. भावानाएँ तो कही भी नजर नही आती हैं 


क्या आज के युवा इतने बेवकूफ हैं कि एक दो बार मिली किसी भी लड़की या लड़के से बस सेक्स के बारें में ही बात करते हैं. और कोई भी लड़का किसी भी लड़की से 4-5 तमाचे खाने के बाद भी हँसता रहता हैक्या सच में ऐसा होता है ?  
 हम क्या दिखा रहे हैं टी वी पर युवाओं कोअगर यही दिखाना है तो इसका नाम बदल देना चाहिए. कम से कम इमोशन के नाम पर सेक्स कि बाते तो नही देखने को मिलेगीऔर अगर यह कार्यक्रम इसी नाम से दिखाना है तो चैनेल पर कम से कम इसके प्रसारण का समय तो बदल ही देना चाहिए.

देर रात इसे दिखा सकते है कम से कम किशोर बच्चे तो इसे देखने से बचेगेक्योंकि  कार्यक्रम के निर्माता का कहना है कि आज के युवा बहुत ही प्रैक्टिकल व पाजिटिव हैं  उनको अपनी किसी भी भावना को दिखाने में किसी भी तरह की कोई शर्म नही आती. और उन्हें सच कहने में किसी भी प्रकार की कोई शर्म नही आती है?


''इमोशनल अत्याचार'' का सीजन टू आरम्भ हो चुका है और पहले ही एपिसोड के बाद इस चैनेल की लोकप्रियता और भी बढ गयी है.क्या यह सब केवल अपने चैनेल की लोकप्रियता बढाने के लिए ही है.  

कार्यक्रम के होस्ट प्रवेश राना व लडकियों के बीच भी कुछ ऐसी बाते होती हैं जिन्हें अनजान लोग आपस में शायद नही कर सकते हैं.लडकियां भी ऐसी-ऐसी बाते व गाली देती हैं जिन को छिपाने के लिए बीप की बार बार आवाजे आती हैं.    
क्या यह सच में  यह इमोशनल अत्याचार है या  सेक्स अत्याचार.

Monday, August 9, 2010

जा चुकी थी बीजी.....








"जुग जुग जियो,परमात्मा तुम्हे खूब तररकी दे" कुछ सुने सुने से लगते है ये आशीर्वाद मुझे.......

बीती रात बीजी(दादीजी)आई मेरे सपने में.सोते हुए बात की मैंने अपनी बीजी से.पूछने लगा कि "कहाँ चले गये थे मुझे छोड़ करमैं आपकी राह देखता ही रहा और आप ना जाने कहाँ चले गये थे?अब आप आ गये हो प्लीज़ बीजी प्लीज़,अब मत जाना मुझे छोड़ कर....."

पर ना जाने क्यों वो मुझे सिर्फ देखती ही रहीं बस,मेरी किसी बात का जवाब नही दिया उन्होंने........
सुबह हुई तो बहुत खुश था मैं,उठते ही सोचा की सबको खुशखबरी दूँ कि बीजी लौट आई है...हाहा पर ये व्यंगात्मक हंसी मुझे समझा बैठी कि उठ जा,जाग जा,सपने से बाहर आजा अब......

सपने देखना अच्छी बात है लेकिन ऐसे सपने कभी सच नही होते जो बीत चुके है,जाने वाले कभी लौट के नही आते......
यही सब कुछ समझा रहा था मेरा मन मुझे,मेरा मन मुझे ही तस्सली दे रहा था.....

एका-एक ये चला गया 13 मई,2006 में.........

मेरी बीजी,जो अब नही रही है.....
सुबह से ही मेरा मन भारी-भारी सा था,शायद यही हाल था घर के दूसरे सदस्यों का भी, मुझे एक बात का डर सता रहा था कि कोई मुझे छोड़ के मुझसे बहुत दूर जाने वाला है आज........

बिस्तर पर लेटी हुई थी बीजीसभी लोग उनसे बात करने की कोशिश कर रहे थे,लेकिन वो एक ही मुद्रा में बस आँखें बंद करके लेती हुई थी.मैं चाह रहा था कि बीजी कुछ बात करें.लेकिन शायद वो कुछ और ही चाह रही थी,शायद अब वो मुझे छोड़ कर जाना चाहतीं थी........

बीजी के आँख खुलने का इंतज़ार करते करते रात हो गयी थी.मैं अब भी ज्यों का त्यों बैठा था,अब भी इंतज़ार कर रहा था,लेकिन कोई फयदा नही था,क्योकिं शायद बीजी तो सोच चुकी थी,जाने का निर्णय ले चुकी थी.....

रात के 11 बज चुके थे,जिस तरह से दीया बुझने से पहले एक बार तेज़ी से रोशनी करता है,उसी तरह बीजी ने भी जाते जाते पांच दिनों से बंद पड़ी आँखें खोल सबको रोशनीयुक्त कर दिया.जाते जाते मुझे देखासभी को देखा...पिछले कई दिनों से घर वालो की एक इच्छा थी कि एक बार ही सही आँखें तो खोलें बीजी और जाते जाते भी सबकी ख्वाहिश पूरी कर गयी बीजी......

मेरे पिताजी और बीजी...... 
बीजी जा चुकी थी अब मुझसे दूर,बहुत दूर,इतना दूर कि वापस लौटना नामुमकिन था अब......
सब रो रहे थे...पिताजी,चाचाजी और ताऊजी और इनके सभी बेटे यानि कि हम सभी भाई तैयारियां करने में जुट चुके थे.......
लोगों के आने जाने का सिलसिला शुरू हो चुका था,रोने और चिल्लाने की आवाज़े दूर दूर तक पहुँच चुकी थी........

मैं भाइयों के साथ लोगो की बैठने की व्यवस्था करा रहा था,दरियाँ बिछवा रहा था मैं.काम हम सभी कर रहे थे लेकिन बार बार ये आंसू बाधा बन जाते थे....
रोकने की बहुत कोशिश कर रहा था इन आंसुओं को मैं,लेकिन नही रुक रहे थे.......

थोडा ध्यान हटा के मैंने पीछे की ओर देखा,बीजी को पिताजी और ताउजी बर्फ की सिल्लीयों पर लिटा रहे थे,दोनों की आँखों से आंसू बहकर उस बर्फ पर गिर रहे थे.लेकिन बर्फ को कुछ असर नही हो रहा था,वो तो ज्यों की त्यों थी,बस आंसू ही अपने आप को कमज़ोर महसूस कर रहे थे शायद.....

फिर मैंने बीजी का चेहरा देखा,अब भी कितना तेज था इस पर.ऐसा लग रहा था की बस अब उठेंगी और बोल पड़ेंगी मुझे "आ गया मेरा बच्चा....." लेकिन नहीं बोलीं बीजी,बस मैं इंतज़ार ही करता रह गया.....
जिस माँ ने इन्हे जन्म दिया,अपनी गोद में रख कर दुनिया दिखाई,आज वही अपनी माँ को गोदी में उठा कर बर्फ पर लिटा रहे थे,माँ जा चुकीं थी............

ये द्रश्य देख कर मैं नही रोक पाया अपने आप को,फूट फूट के रोया.दिल से एक तो पहले ही बीजी का चेहरा नही जा रहा था ऊपर से इस वाक्या ने तो तोड़ के रख दिया मुझे.....

रोकना चाह रहा था अपने आप को मैं लेकिन नही रोक पा रहा था.अपने आप को ही सांत्वना दे रहा था मैं.......

कुछ देर बाद पिताजी ने अपने आप को सम्भालते हुए मुझे भी सम्भाला और एक बात समझाई मुझे.....

कहने लगे कि "जब किसी डाल का पत्ता कमज़ोर हो जाता है तो वो सूख जाता है और कुछ समय बाद गिर जाता है,लेकिन क्या तूने कभी हरे पत्तों को सूखे पत्तों के साथ गिरता हुआ देखा हैयही दुनिया का नियम है,एक दिन मुझे भी जाना है और तुझे भी,सब जाते है एक दिन.समय सबका आता है फर्क सिर्फ इतना है कि किसी को जल्दी जाना पड़ता है और किसी को देर सेलेकिन जाना पड़ता है........"

मैं आँखें झुकाए खड़ा बस सुनते जा रहा था,एक कान में पिताजी की बातें सुनाई पड़ रही थी तो दूसरे कान में लगातार ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बीजी बुला रही हो मुझे,जिस तरह से वो मुझे हमेशा प्यार से बुलाया करती थी.....

पिताजी समझाये जा रहे थे बस,"बहुत काम है अभी हम सब को,इस तरह से रोयेगा तो कैसे चलेगा काम?सम्भाल बेटा अपने आप को..."
चुप होने की कोशिश बहुत की लेकिन आंसू रुकने का नाम नही ले रहे थे...

अब तक रात के 3 बज चुके थे.भाइयों को पिताजी और ताउजी समेत अखबार वालों के ऑफिस जाना था दुःख की खबर छपवाने,सो वो चले गये....

मैं बैठा बीजी के पार्थिव शरीर के पास लगातार उन्हें देख रहा था,विश्वास नही हो पा रहा था अब तक कि बीजी मुझे छोड़ के चली गयी है..........




मेरे चाचा जो कि एक बहुत ही भावुक किस्म के इंसान है वो मेरे बगल में बैठे सुबकियाँ ले ले कर एक छोटे बच्चे की तरह रोये जा रहे थे,(बच्चे ही तो थे बीजी के,चाहे कितने भी बड़े हो जाएँ लेकिन माँ के लिए तो वो हमेशा बच्चा ही रहता है...)मैं उन्हें चुप करा रहा था......

बैठे बैठे कुछ देर के लिए वहीँ आँख लग गयी मेरी.....

उठा तो देखा 5 बज चुके थे,उनसे लिपट कर बुरी तरह रोने की बहुत ख्वाहिश थी मेरी.बस एक बार उनके गले लग कर रोना चाहता था मैं,पर ख्वाहिश,ख्वाहिश ही रह गयी.....

लोगो के आने जाने का कार्यक्रम करीब 8 बजे तक चला,कुछ ही देर बाद उनको अपने काँधे पर लिए शमशान ले जाया जाना था,आखिरकार वो समय भी आ गया......

हाथ में मटकी लिए आगे आगे चल रहा था मैं और पीछे पिताजी और ताउजी,चाचाजी और भईया लोग कंधा दे रहे थे बीजी को और भी बहुत लोग पीछे पीछे आ रहे थे.........

शमशान आ चुका था,बीजी पर भारी भारी लकड़ियाँ रख रहे थे लोग,पंडित पूजा की तैयारी कर रहे थे,बहुत बुरा द्रश्य था,बहुत रोया मैं........
और देखते ही देखते चली गयी बीजी.......

रुक ही नही रहे थे आंसू,समय आ गया था उनको मुखागिनी देने का,मन तो किया कि एक बार अपनी बीजी को गले लगा के जी भर कर रो लूँ,लेकिन नही कर पाया ऐसा.........
ताउजी ने मुखागिनी दे दी.......

जा चुकी थी बीजी,बड़ी बड़ी लपटें उठ रही थी लेकिन उनका पार्थिव शरीर वैसे ही पड़ा रहा,ख़त्म हो गया था सब...........

आज चार साल हो गये बीजी को गये,लेकिन आज भी बीजी आती है मेरे सपनों में,आज भी मेरे कानों में गूंजती है उनकी आवाजें, उनका वो प्यार से बुलाना, वो प्यार भरी डांट,सब सुनाई देता है मुझे.......
बहुत प्यार करता हूँ उनसे मैं............

रोज़ रात को सोते समय जब भगवान् को हाथ जोड़ता हूं,तब आज भी बीजी को याद ज़रूर करता हूँ.........

दिल से धन्यवाद.......
                                                                                                                                                                        मोहक शर्मा.........
   

Sunday, August 8, 2010

मेरे मन का पंछी..........

यूं ही खाली बैठे बैठे बस मन में आ रहा है कुछ....सोचने से पहले भी सोच रहा हूँ कि क्या सोचा जाए?किस मुद्दे पर सोचा जाए...?

वैसे जब कोई मुद्दा मिल जाता है तो बस चल पड़ती है मेरी गाडी "दुरंतो" और अक्सर ये एक लम्बा सफ़र तय करती है हर बार.बिना रुके,बिना थके......

लेकिन क्या फायदा? जब कोई यात्री ही ना बैठा हो उसमे तो गाडी चलने का क्या काम? एका-एक मेरी सोचने की "दुरंतो" बंद हो जाती है और मन कहता है कि रुक थोडा आराम कर ले...मैं मन से कहता हूँ कि "नही!आराम नही करना मुझे....."


मुझे तो भागना है चलने की तो छोड़ो...बस भागना है...इस दौड़ में ऐसा दौड़ना है कि सबसे आगे निकल जाऊ.इतना आगे कि दूर दूर तक कोई न हो मुझसे मुकाबला करने वाला.
मेरा मन विचलित होने लगा है...इसे शायद उड़ना है...पर कहाँ की ओर उड़ना चाहता है ये मन का पंछी मेरा,ये खुद नही जानता..??बस रट लगाये बैठा है कि मुझे उड़ने दो.....
बेचैनी सी महसूस करने लगा हूँ मैं....वैसे ये कोई नयी बात नही है..पहली बार मेरी ऐसी हालत नही हुई है..

हा हा...ये तो अक्सर होता है मेरे साथ,जैसा अभी हो रहा है...
कुछ भी सोचने लगता है ये मेरे मन का पंछी.....कुछ विचार है मेरे मन में जो इस समय बहार आने को व्याकुल है....क्यों मचल रहा है ये? क्यों परेशान है? क्या चाहता है? शायद बाहर जाना है इसे....
नहीं नहीं! अगर पूछ लिया इससे,तो बाहर जाने कि रट लगा देगा.लेकिन इतनी समझ तो इसको भी है कि बाहर तो इंद्रदेव आये खड़े है,बारिश हो रही है बाहर तो?
गुलाम अली साहब....
तो क्यों है ये बेचैन?

चलिए इसकी भी सुन लियेता हूँ.....
हा हा ये कह रहा है कि "चमकते चाँद को टुटा हुआ तारा बना डाला,मेरी आवारगी ने मुझे को आवारा बना डाला,मुझे तकदीर ने तकदीर का मारा बना डाला......
मुझे इस शहर ने गलियों का बंजारा बना डाला.....
यही आगाज़ था मेरा और यही अंजाम होना था........
मुझे बर्बाद होना था,नाकाम होना था......

नाराज है शायद, दुखी है शायद......

वैसे मुझे गुलाम अली साहब का बहुत बड़ा फैन लगता है ये मन...ठाले बैठे नही कि शरू हो जाता है बस....


गुलाम अली साहब.....

"अपनी धुन में रहता हूँ,मैं भी तेरे जैसा हूँ.....ओ पिछली रुत के साथी,अब के बरस मैं तन्हा हूँ.....तेरी गली में सारा दिन,दुःख के कंकर चुनता हूँ....."


चंचल है शायद, थोडा बच्चा है शायद......
दरअसल वास्तव में पसंद है मुझे मेरे मन की ये आदत....
क्या गलत करता है ये ? कुछ नही शायद,ये तो वो सुनता है जो सुनना चाहता है....
ये वो सुनता है जिसे हर वो शख्स पसंद करता है जो खुद अपने मन में एक कवि को जिंदा रखे हुए है....

मोहोमद रफ़ी जी.....
आज की युवा पीड़ी को बहुत कोसता है ये मन...बार बार पूछता है मुझसे कि कहाँ चले गये किशोर दा, मोहोमद्द रफ़ी जी,नसरत फतह अली साहब और ना जाने कौन कौन?
कहता है कि आज अगर जिंदा होते,तो नहीं होते ये बेहुदा और कानो को चुभने वाले कर्किश गीत....
चिल्ला चिल्ला के पूछ रहा है ये इन युवाओ से कि क्या है ये " पपा जग जायेगा" क्या है ये "जब तक रहेगा समोसे में आलू" क्या है ये "मेरे ख्याब भी कमीने"??????

आज गानों में गालिये भर देने का तो फैशन सा चल पड़ा है....कुछ भी बना देते है ये संगीतकार...ज़रा आज से कुछ समय पीछे चले जाइये और याद कीजये उन गीतों को "नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठी में क्या है", "मेरे देश की धरती सोना उगले,उगले हीरे मोती", "जैसी करनी वैसी भरनी"........
किशोर दा....
जनाब एक गीत भी ऐसा नहीं मिलेगा जिसका कोई अर्थ ना हो, क्या खूबसूरत गीत हुआ करते थे...हर गीत की एक एक पंक्ति में शिक्षा होती थी....सदाबहार गीत है ये तो........

इस ज़माने के और उस ज़माने के ये तो सिर्फ तीन-तीन गीत गिनवाए है आपको, कभी समय निकालिएगा और अपने भी मन से पूछियेगा,तो एक नही लाखों ऐसे गीत आ जायेंगे आपकी जुबां पे,जिनका कोई वजूद नही है,ना सिर है ना पैर और दूसरी तरफ शिक्षा भरे, मीनिंगफुल गीत.....आप खुद ही फैसला करें.... 

आज तो ये उटपटांग गीत ही बस बज रहे है.....और बजते ही जा रहे है....

बजने के नाम से याद आया कि क्या बज गया है? रुकिए समय देख लू...
हाहा इस "दुरंतो" के चक्कर में कब रात्रि के तीन बज गये पता ही ना चला,चलिए दो ज़मानों के तीन गीत याद दिला के, तीन गायकों के नाम गिना के, रात के तीन बजे मैं भी चल दियेता हूँ..कल फिर मुलाकात करूँगा अपने मन के पंछी से...........


दिल से धन्यवाद............                                                                                                                                                                                                                                                              




मोहक शर्मा...........

Friday, August 6, 2010

ट्रेन का सफर.....






कल बीती रात मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था.रात भर सो नही पाया.कोशिश बहुत की मगर कमबख्त नींद न जाने कहा खो गयी थी.इसका कारण या तो मैं खुद था या वो फिल्मी गुट.


दरअसल मेरी अगली ओर ही एक फ़िल्मी गुट बैठा था.फ़िल्मी इसलिए कह रहा हूँ क्योकि दोपहर के 2 बजे से,मतलब सफ़र शुरू होने से करीब रात के 2 बजे तक यानि 12 घंटे के करीब बस उनका एक ही मुद्दा था और वो था रोज़ के आने वाले डेली सोप्स पर बहस......

कभी कहीं कोई "लाडो" को बुरा कह जाता तो कहीं उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते.कहीं "आनंदी" को बुरा बता दिया जाता तो कही "आनंदी" की तरफदारी करने कुछ औरतो का अलग ही रविया दिखता.


ये सिलसिला यहीं नही थमा, क्योकि अभी तो बस चिंगारी भड़की थी,पूरी आग तो लगना अभी बाकी थी.मेरे सोचे मुताबिक वही हुआ जिसका डर था.आखिर आग लग ही गयी. खाते समय, पीते समय, सोने से पहले बस समझ लीजिये हर समय इन सभी बातों का ज़िक्र होता रहा.

कोई सुध नही दिखाई पड़ रही थी कि कोई तो मुद्दा बदल के एक दूसरे के हाल चाल पूछ ले.ज़ाहिर है इतने समय बाद मिले थे ये सभी लोग आपस में, एक बार तो हाल चाल पूछना बनता ही था. ख़ैर छोडिये इनके भी क्या कहने!


चलिए अब बात चल ही पड़ी है तो आपको थोडा गहराई में उतार दियेता हूँ.
आप भी सोच रहे होंगे कि कोई भला कितनी बातें कर सकता है इस मुद्दे पर? लेकिन जनाब ये मुद्दा सिर्फ यही नहीं था कि कौन बुरा और कौन अच्छा? 


यहाँ तो हर एक उस बात पर मुद्दा गरम होते नज़र आ रहा था जिसके बारे में शायद ही कोई इतनी गहनता से सोचता हो. उसकी साडी, उसकी बिंदिया, उसका लहेंगा.यहाँ तक की उसकी चाल,उसके बाल,उसका मेक-अप.....क्या नही छोड़ा? 

मेरी मानिए जनाब इतना गौर तो न "आनंदी" खुद करती होगी न ही "लाडो".आप भी कहेंगे कि ये मोहक भी पागल हो गया है, कोई स्टोरी नही मिली तो कुछ भी लेकर आ गया है.लेकिन क्या करूँ मेरी भी मजबूरी है, पत्रकार हूँ ना,किसी भी बात को एक मुद्दा बना ही देता हूँ.


लेकिन कल रात के सफ़र से एक बात तो समझ में आ ही गयी, कि'क्यों भारतीयों को ही इडियट बॉक्स का सबसे बड़ा सनकी, पागल, दीवाना कहते है......'


समय देखा,रात के बज चुके थे.चलिए अब मैं थोडा खुश था.धीरे-धीरे आग बुझने लगी थी तो मैंने भी सोचा की थोडा विश्राम कर लिया जाए लेकिन किस्मत कुछ और ही चाह रही थी.ये तो पता नही की ये मात्र एक इतेफाक था या मेरी ख़राब किस्मत जो एक आग के बुझते ही दूसरी सुलगने के लिए तैयार थी....

चलिए अब नींद तो आने से रही थी.मन ही मन सोचा कि अब तक एक गुट से इतना कुछ सुन लिया हूँ,थोडा इस गुट की भी सुन ही लियेता हूँ.आइये तो अब मैं आपको लिए चलता हूं दूसरे छोर पर.


ये एक ऐसा गुट है जिसको कोई मतलब नही है सीरियल की दुनिया से.
बेवकूफ समझते है ये लोग उनको जो ये सब देखते है........

इनका तो बस एक ही मुद्दा है और मेरा अनुमान है कि इनका ये मुद्दा जायज़ भी है.बिलकुल सही मुद्दे पर बात हो रही है इनके बीच.इनको तो दाद देता हूँ मैं.


आप सुनेंगे तो शायद आप भी दाद दिए बिना नही रह सकेंगे,क्योकि अगर हर भारतीय भी इनकी तरह ही गर्मजोशी से इस मुद्दे पर बात करना शुरू कर दे तो यकीन मानिये मात्र 10 दिनों में 30% बदलाव तो हो ही जायेगा.


बाकी बचे बदलाव के प्रतिशत को शायद एक महीना और लग जाए.कहने का मतलब ये कि एक या दो महीने में भारत की तस्वीर ही बदल जाएगी,जो आज 50 साल से भी ज्यादा समय लेने के बाद भी नही बदल पायी है.


चलिए बहुत हो गया मेरा ये पहेली बुझाना,अब मैं अपनी बात पर आता हूँ.तो सरकार 


इनका मुद्दा था महंगाई........


इनका मुद्दा था आम आदमी.इनका मुद्दा था आम आदमी  पर पड़ रहे महंगाई के डंडे को 
रोकने का ,कि किस तरह से रोका जाए ये "भ्रष्ट डंडा"?वैसे ये मुद्दा कोई नया नहीं है.बहुत 
लोग बहुत बार इस मुद्दे पर बात करते नज़र आये है,चाहे वो सरकारी ऑफिस में हो या 
गाँव में,या आपके और हमारे ही घर ही हो.अंजाम कुछ नही होता,बस यही होता है जो हर 
बार होता आया है और शायद आगे भी यही होता रहेगा,और वो है "कुछ नहीं"




करीब तडके सुबह के 4.30 बजे तक चले इस मुद्दे की बहस में मैं एक ही निष्कर्ष तक पहुँच 
पाया.वो ये कि इनमे से कुछ लोग तो दाल,चीनी,नमक,सब्जी-फल या पेट्रोल,डीज़ल के गान गा रहे थे,संक्षिप्त में कहना का मतलब कि महँगाई के दामों से रु ब रु करा रहे थे कि किसका दाम बढ़ा और किसका घटा?


("हा हा माफ कीजियेगा जनाब लेकिन कुछ नही घटा,सब बढ़ा ही बढ़ा है......")





तो वहीँ कुछ लोग वैसे ही हर बार कि तरह सरकार को कोस रहे थे
,कुछ सिस्टम को दोष दे रहे थे,तो कुछ अपनी ही दादागिरी पर उतर आये थे.इन दादागिरी करने वालों का बस एक यही कहना था कि "अगर मुझे मंत्री बना दें तो मैं देखता हूँ फिर",तो वहीँ दूसरा बोलता कि "मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो अब तक हमारे देश को अमेरिका से भी आगे ला खड़ा किया होता...."




यही था मेरा निष्कर्ष,कि जो बादल गरजते है वो बरसते नहीं,समझ गया था मैं कि इन तिलों में तेल नहीं.
सिर्फ टाइम पास कर रहे थे ये लोग,सफर जो पूरा करना था इन्हे....




यही कमी है हमारे लोगों में,बस बोलना जानते है पर कुछ करना नही.
शायद ये कुछ करना चाहते ही नही है.मुझे तो वास्तव में यही लगता है कि सिर्फ यही लोग है जिनके वजह से आज भारत की ये दशा हुई है




बस फिर क्या था इनके मुद्दे पर मैंने भी मन ही मन अपने भी कुछ तर्क रख डाले.अपनी बात रखते रखते 6 बज चुके थे.सोचा थोड़ी कमर सीधी कर लूँ,लेकिन एका-एक ध्यान आया कि मेरी मंजिल तो कुछ ही क्षणों में आने को है.मजबूरी थी,उठना पड़ा.सामान संभाला और इंतज़ार करने लगा अपने स्टेशन के आने का.




ट्रेन के गेट पर खड़ा अपना सामान लादे सूर्यदेव को नमस्कार कर सूर्यदेव से ही पूछने लगा कि "क्या इसी तरह ही सोती रहेगी हमारी ये भोली जनता? क्या ऐसा ही रहेगा हमारा ये देश जैसा आज है?या ये नयी पीड़ी कुछ बदलाव ला पायेगी?"




गौर से देखा तो सूर्यदेव भी अपने लालिमा युक्त चहरे से देख मुझे मुस्कुरा रहे थे.मैं समझ गया.




मुझे मुहतोड़ जवाब मिल चुका था और मेरा स्टेशन भी आ चुका था...........





दिल से धन्यवाद.......



                                                                                                                                                                                                     मोहक शर्मा........