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Thursday, October 14, 2010

जीवन की आपाधापी में........(मेरी गलतियाँ)

"मैं जब जब अकेले बैठे हुए कुछ सोचने लगता हूँ तो तो बस हरिवंश राय बच्चन जी की यही पंक्तिया याद आ जाती है मुझे......" 



जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।



"जब जब सोचने लगता हूँ कि दुनिया के इस मेले में आ जाने के बाद मैंने क्या पाया क्या खोया, तब तब मेरा दिल मुझे ये पंक्तिया याद दिला देता है "


जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।




"कितने ऐसे फैसले थे जो मैंने गलत लिए,कितनी ऐसी बातें थी जो मैंने गलत कही,कितने ऐसे मौके थे जो मैंने गवा दिए,कितने ऐसे अरमां थे जो मैं उस समय में पूरे ना कर सका,कितनी बार मैंने इंसान को गलत पहचाना,अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा पहचाना.....
जब जब ये सब कुछ सोचता हूँ तो कुछ ये पंक्तिया मुझे मेरी गलतियों का बखूबी अहसास कराती है...."


मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।



"जिसे करील की झाड समझता था असल में वो गुलाब का फूल था,जिसे मैं अपने घर में सजाना चाहता था,लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, इतनी गलतियाँ की मैंने अपनी ज़िन्दगी में,सोचता हूँ तो डर लगता है की अभी तो ज़िन्दगी पड़ी है.....
काश जल्द ही मर जाऊ ताकि ऐसा कुछ और ना देखना पड़े,लेकिन जब ये पंक्तियाँ आती है मेरे इस ज़ेहन में तो एक नयी उर्जा दे जाती है,शायद यही उर्जा है जो मुझे अब तक जिंदा रखे हुए है...."



मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला


दिल से धन्यवाद......

                                                                                                                                     मोहक शर्मा.....

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